शराफ़त नाज़ कैमूरी की लाज़वाब ग़ज़ल।

आप दोस्तों की नज़्र इक ताज़ा ग़ज़ल पेश है। 



अब  तो  दिल  को  याद  आये, भी  ज़माना  हो  गया ।
शायद,  अपने  इश्क़  का  , क़िस्सा   पुराना  हो  गया ।।

अद्लिया ,  इन्साफ़,   मुन्सफ़,   जैसे   मुर्दा   हो  गये ।
ऊँचा ,  कुछ   ऐसे   सियासी,   ताना   बाना  हो  गया ।।

होगई   है , मुफ़लिसों   की  , ज़िन्दगी  ख़ाना   बदोश ।
उम्र  भर  परदेश  का  ही ,  आब- वो- दाना  हो  गया ।।

ये  निदामत ज़ेहन  की  है , या  मुहब्बत  की  दलील ।
क्यूँ भला मुझ  पर ख़ता , उन का  निशाना  हो  गया ।।

छूट  है ,  ताअने   कसें  ,  या  वो  , ठहाके   से  हँसें ।
चापलूसी    में  ,   इबादत   ,  मुसकुराना   हो   गया ।।

जंगे   आज़ादी   में   जो,  देखे ,  तमाशे   बैठ   कर ।
देश   का   हमदर्द  अब,  उन  का  घराना  हो  गया ।।

क्यूँ  पुराने  रिश्तों  के, आँखों  में,  हों  बाक़ी  निशाँ ।
ख़त्म  जब  दोनों  तरफ़  से , आना जाना  हो  गय

कल तलक तो हमवतन,दो जिस्मऔर इक जान थे ।
आज क्यूँ मुश्किल भला, दिल को मिलाना हो गया ।।

" नाज़ " बेटी बहनों  की कहती , है ये अस्मत  दरी ।
मज़हबों  का  हुक्म  शायद ,  क़ातिलाना  हो  गया ।।

       ****** " नाज़ " कैमूरी भभुआ ******
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